10TH CIVICS NOTES

satta me sajhedari ki karypranali

satta me sajhedari ki karypranali, Class 10th Civics Notes in Hindi

सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली

सत्ता की साझेदारी एक ऐसी कुशल राजनीतिक पद्वति है जिसके द्वारा समाज के सभी वर्गों को देश की शासन प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाता है ,ताकी कोई भी वर्ग यह महसुस न करे की उसकी अवहेलना हो रही है।

वास्तव में,सत्ता की भागीदारी लोकतंत्र का मुलमंत्र है। जिस देश ने सत्ता की साझेदारी को अपनाया,वहाँ गृहयुद्ध की संभावना समाप्त हो जाती है।

सरकार के तीनों अंगों विधायिका ,कार्यपालिका तथा न्यायपालिका में भी सत्ता की भागीदारी को अपनाया जाता है।
इस प्रकार केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों में भी सत्ता की भागीदारी के सिद्धांत पर शक्ति का बँटवारा कर दिया जाता है।

राजनीतिक दल सत्ता में साझेदारी का सबसे जीवंत स्वरूप है।

राजनीतिक दल लोगों के ऐसे संगठित समूह है जो चुनाव लड़ने और राजनैतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से काम करते है। उनकी आपसी प्रतिद्वद्विता यह निश्चित करती है की सत्ता हमेशा किसी एक व्यक्ति या संगठित समूह के हाथ में न रहे।

जैसे:-सत्ता की साझेदारी का सबसे अद्यतन रूप गठबंधन की राजनीती या गठबंधन की सरकारों में दिखता है ,जब विभिन्न विचारधाराओं ,विभिन्न सामाजिक समूहों और विभिन्न क्षेत्रीय और स्थानीय हितों वाले राजनीतिक दल एक साथ एक समय में सरकार के एक स्तर पर सत्ता में साझेदारी करते है।

लोकतंत्र में सरकार की सारी शक्ति किसी एक अंग में सिमित नहीं रहती है ,बल्कि सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सत्ता का बँटवारा होता है। यहाँ बँटवारा सरकार के एक ही स्तर पर होता है।

जैसे:-सरकार के तीनों अंगों-विधायिका ,कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा होता है और ये सभी अंग एक ही स्तर पर अपनी-अपनी शक्तियों का प्रयोग करके सत्ता में साझेदार बनते है।

सत्ता के ऐसे बँटवारे से किसी एक अंग के पास सत्ता का जमाव और एवं उसके दुरूपयोग की संभावना ख़त्म हो जाती है। इसके साथ ही हरेक अंग एक दूसरे पर नियंत्रण रखता है।

10th satta me sajhedari ki karypranali notes in hindi, class 10 satta me sajhedari ki karypranali pdf notes

*क्षैतिज वितरण :-सरकार के एक स्तर पर सत्ता के बँटवारे को हम सत्ता का क्षैतिज वितरण कहते है।

*उर्ध्वाधर वितरण :-सत्ता में साझेदारी की दूसरी कार्यप्रणाली में सरकार के विभिन्न स्तरों पर सत्ता का बँटवारा होता है। सत्ता के ऐसे बँटवारे को हम सत्ता का उर्ध्वाधर वितरण कहते है।

10th Mobile App Download Click Here

*सत्ता में साझेदारी की कार्य प्रणाली :-

लोकतंत्र में व्यापारी,उद्योगपति।किसान,शिक्षक,औधोगिक मजदुर जैसे संगठित हित समूह सरकार कि विभिन्न समितियों में प्रतिनिधि बनकर सत्ता में भागीदारी करते है,या अपने हितों के लिए सरकार पर अप्रत्यक्ष रूप में दबाब डालते है। ऐसे विभिन्न समूह जब सक्रिय हो जाते है ,तब किसी एक समूह का समाज के ऊपर प्रभुत्व कायम नहीं हो पाता।                                                                                                                                                                          यदि कोई एक समूह सरकार के ऊपर अपने हित के लिए दबाब डालता हैतो दूसरा समूह उसके विरोध में दबाब बनाता है की नीतियाँ इस प्रकार न बनाई जाएँ। इस प्रक्रिया को सत्ता में साझेदारी की कार्य प्रणाली कहते है।

*दबाब समूह :-ऐसा समुह जो अपनी मांगों की पूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार पर दबाब डालती है,उसे दबाब समुह कहते है।

जैसे:- मजदुर संघ ,व्यापार संघ ,छात्र संगठन आदि

*संघ राज्य :- संघ राज्य का अर्थ है -सत्ता का उर्ध्वाधर वितरण।

इस तरह के राज्य के लिए पूरे देश की एक सरकार-केंद्रीय सरकार होती है और राज्य या प्रांतों के लिए अलग-अलग। केंद्र और राज्यों के बीच संविधान में उल्लेखित सत्ता या शक्ति का स्पष्ट बँटबारा रहता है। राज्यों के नीचे भी सत्ता के साझेदार रहते है,उन्हें स्थानीय स्वशासन कहते है।सत्ता के इसी बँटबारे को संघ राज्य या संघवाद कहते है।

संघवाद की विशेषताएँ

1. संघीय शासन व्यवस्था में सर्वोच्च सत्ता केंद्र सरकार और उसकी विभिन्न इकाइयों के बीच बँट जाती है।

2. संघीय व्यवस्था में दोहरी सरकार होती है एक केंद्रीय स्तर की सरकार ,दूसरे स्तर पर प्रांतीय या क्षेत्रीय सरकारें होती है।

3. प्रत्येक स्तर की सरकार अपने क्षेत्र में और अपने-अपने कार्यों के लिए लोगों के प्रति जवाबदेह या उत्तरदायी होती है।

4. अलग-अलग स्तर की सरकार एक ही नागरिक समूह पर शासन करती है।

5. नागरिकों की दोहरी पहचान एवं निष्ठाएँ होती है वे अपने क्षेत्र के भी होते है और राष्ट्र के भी।

6. दोहरे स्तर पर शासन की विस्तृत व्यवस्था एक लिखित संविधान के द्वारा की जाती है। 

7. विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकार सविंधान में स्पष्ट रूप से लिखे रहते हैं।

8. संविधान के मूल प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती है।

9. एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की जाती है। जिससे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों और शक्ति के बंटबारे के सबंध में उठनेवाले कानूनी विवादों को भी हल करता है।

*संघीय व्यवस्था का गठन :-

संघीय व्यवस्था आमतौर पर दो तरीकों से गठित होती है।

1. कई बार कई स्वतंत्र और संप्रभु राज्य आपस में मिलकर सामान्य संप्रभुता को स्वीकार कर एक संघीय राज्य का गठन करते हैं।

जैसे:-अमेरिका ,आस्ट्रेलिया

2. जब किसी बड़े देश को अनेक राजनैतिक इकाइयों में बाँटकर वहाँ स्थानीय या प्रांतीय सरकार और केंद्र में अन्य सरकार की व्यवस्था की जाती है तब भी संघीय सरकार की स्थापना होती है।

जैसे:-भारत ,स्पेन 10th satta me sajhedari notes in hindi

  • इस तरह से गठित संघीय व्यवस्था में राज्यों की अपेक्षा केंद्र सरकार ज्यादा शक्तिशाली होती है।
  • इसमें अवशिष्ट अधिकार केंद्र सरकार को दिए जाते है।
  • संघीय शासन व्यवस्था  शुरुआत अमेरिका से हुई।
  • केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन हर संघीय सरकार में वहाँ के ऐतिहासिक अनुभव सामाजिक एवं राजनैतिक जरूरतों के हिसाब होता है।

*भारत में संघवाद का विकास

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय संघर्ष का नेतृत्व करनेवाली कांग्रेस पार्टी शुरू से ही संघीय व्यवस्था की समर्थक रही। 1946 में गठित संविधान सभा का आधार भी संघवाद था,क्योकि इसमें सभी प्रांतों के प्रतिनिधि वहाँ की विधान सभा द्वारा सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली के द्वारा चुने गए थे और देशी रियासतों के अधिकार प्रतिनिधि को उनके शासकों ने नामजद किया था।           

         इस तरह से विविधता को मान्यता देने के साथ राष्ट्रीय एकता के मूल्यों के संवर्धन के लिए संघीय शासन व्यवस्था की स्थापना की गई।

1.लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

*भारत में संघीय शासन व्यवस्था :-

1. भारतीय संविधान में दो तरह की सरकारों की व्यवस्था की गई है -एक संपूर्ण राष्ट्र के लिए केंद्रीय सरकार और दूसरी प्रत्येक प्रांतीय या राज्य के लिए सरकार जिसे हम राज्य सरकार कहते है।

2. संविधान में स्पष्ट रूप से केंद्र और राज्य सरकार के कार्य क्षेत्र और अधिकार को बाँटा गया है।

3. विधायी अधिकारों को तीन सूचियों में बाँटा गया है:- संघ सूची ,राज्य सूची ,समवर्ती सूची 

i. संघ सूची में राष्ट्रीय महत्व के विषय शामिल हैं।

जैसे:-प्रतिरक्षा ,संचार साधन ,मुद्रा बैंकिंग आदि

ii. राज्य सूची में राज्य और स्थानीय महत्व के विषय शामिल हैं।

जैसे:-जेल ,शिक्षा ,पुलिस आदि

iii. केंद्र और राज्य दोनों के लिए महत्व रखनेवाले विषयों को समवर्ती सूची में रखा गया है। 

जो विषय इन सूचियों में नहीं आते है,या बचे हुए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को दे दिया गया है।

4. भारतीय संविधान को कठोर बनाया गया है,ताकि केंद्र और राज्य के बीच अधिकारों के बँटवारे में आसानी से एवं राज्यों की सहमति के बिना फेर बदल नहीं किया जा सके।

5. सरकार चलाने एवं अन्य जिम्मेवारियों के निर्वहन के लिए जरुरी राजस्व की उगाही के लिए केंद्र एवं राज्यों को कर लगाने एवं संसाधन जुटाने का अधिकार प्राप्त है।

भाषानीति

भारत में बहुत सी भाषाएँ बोली जाती है।

  • भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया है,क्योंकी यह आबादी के 40% लोगों की भाषा है।
  • हिंदी को अनुसूचित भाषा के रूप में पहचाना गया है।
  • हिंदी के अलावा संविधान द्वारा अनुसूचित भाषाओं के रूप में मान्यता प्राप्त 22 अन्य भाषाएँ है।
  • राज्यों या प्रांतो की भी अपनी राजकीय भाषाएँ है।
  • हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का भी राजकीय कामों में प्रयोग किया जाता है।

1990 के बाद देश में अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ है। और इसी दौर में केंद्र में गठबंधन सरकार की शुरुआत का भी था। चुकी किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। इसीलिए प्रमुख पार्टियाँ को क्षेत्रीय दलों समेत अनेक पार्टियों को गठबंधन बनाकर सरकार बनानी पड़ी।

भारत में विकेन्द्रीकरण

जब केंद्र और राज्य सरकार से शक्तियां लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती है तो इसे सत्ता का विकेन्द्रीकरण कहते है।satta me sajhedari ki karypranali pdf notes in hindi

  • 1992 से पहले स्थानीय सरकारें सीधे राज्य सरकारों के अधीन थे।
  • स्थानीय सरकारों के पास अपने स्वयं के संसाधन या शक्तियाँ नहीं थी।
  • हर राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतंत्र संस्था का गठन किया गया है।

*बिहार में पंचायती राज व्यवस्था की एक झलक

हमारे सांस्कृतिक विरासत की एक अनोखी विशेषता यह रही है की स्थानीय प्रशासन की मुलभुत इकाई ग्राम ही रही है। महात्मा गाँधी भी कहा करते थे की भारत की आत्मा गावों में बसती है।

अनुच्छेद 40 में राज्य को यह दायित्व सौंपा गया है की वह ग्राम पंचायतों के गठन ,उनकी शक्तियाँ और कार्य तथा उन्हें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में कार्य करने हेतु सक्षम बनाने के लिए कदम उठाये।

राष्ट्रीय स्तर पर पंचायती राज्य प्रणाली की शुरुआत बलवंत राय मेहता समिति की अनुशंसाओं के आधार पर 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले से हुई थी।

1959 में ही आंध्रप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागु की गई।

बलवंत राय मेहता समिति ने पंचायत व्यवस्था के लिए त्रि-स्तरीय ढाँचा का सुझाव दिया-

1. ग्राम स्तर पर पंचायत

2. प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति या क्षेत्रीय समिति

3. जिला स्तर पर जिला परिषद्

ग्राम पंचायत

ग्राम पंचायत का शाब्दिक अर्थ पांच पंचो का समिति होता है। भारत में सर्वप्रथम ग्राम पंचायत का शुरुआत बलवंत राय मेहता समिति की अनुशंसाओं पर 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले से किया गया। ग्राम पंचायत का सपना महात्मा गाँधी का था। बिहार में भी त्रि-स्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था लागु है। 7000 के आबादी पर एक ग्राम पंचायत तथा 500 के आबादी पर एक वार्ड बनाया जाता है। ग्राम पंचायत के प्रधान मुखिया तथा सचिव ग्राम सेवक होते है। ग्राम पंचायत का कार्य काल पांच वर्षों का होता है। बिहार पंचायती राज्य अधिनियम 2006 के तहत सीटों का 50% महिलाओं के लिए रिजर्व कर दिया। 

मुखिया या उपमुखिया अपने पद से स्वय हट सकते है या हटाये जा सकते हैं। स्वेच्छा से हटने के लिए उन्हें जिला पंचायती राज पदाधिकारी को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

ग्राम पंचायत के सामान्य कार्य :-

i. कृषि संबंधी कार्य

ii. ग्राम विकास संबंधी कार्य

iii. प्राकृतिक विपदा में सहायता करने का कार्य

iv. युवा कल्याण सम्बंधी कार्य

v. राजकीय नलकूपों की मरम्मत व रखरखाव

vi. चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सम्बंधी कार्य

vii. महिला एवं बाल विकास सम्बंधी कार्य

viii. पशुधन विकास सम्बंधी कार्य

ix. समस्त प्रकार की पेंशन को स्वीकृत करने व वितरण का कार्य

x. राशन की दुकान का आवंटन व निरस्तीकरण,आदि।

ग्राम पंचायत की आय के स्रोत :-

ग्राम पंचायत की आय के स्रोत निम्नवत है।

1. कर स्रोत –होल्डिंग ,व्यवसाय व्यापार ,पेशा और नियोजन

2. फ़ीस और रेंट –वाहनों का निबंधन ,हाटों और मेलों ,तीर्थ स्थानों ,शौचालय और मूत्रालय

3. वित्तीय अनुदान –राज्य वित् आयोग की अनुशंसा के आधार पर राज्य सरकार द्वारा पंचायतों को संचित निधि से अनुदान भी दिया जाता है।

ग्राम पंचायतों के प्रमुख अंग

1. ग्राम सभा :-यह पंचायत की व्यवस्थापिका सभा है। ग्राम पंचायत क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यस्क स्त्री-पुरुष जो 18 वर्ष के उम्र के है ग्राम सभा के सदस्य होते है।

ग्राम सभा की बैठक वर्ष भर में कम-से-कम चार बार होगी।

2. मुखिया :-मुखिया ग्राम सभा की बैठक बुलाता है और उनकी अध्यक्षता करता है।

3. ग्राम रक्षा दल :-यह गावं की पुलिस व्यवस्था है। इसमें 18 से 30 वर्ष के आयु वाले युवक शामिल हो सकते हैं।

सुरक्षा दल का एक नेता होता है जिसे दलपति कहते है। इसके ऊपर गावं की रक्षा और शांति का
उत्तरदायित्व रहता है।

4. ग्राम कचहरी :-यह ग्राम पंचायत की अदालत है जिसे न्यायिक कार्य दिए गए है।

  • सरपंच ग्राम कचहरी का प्रभारी होता है।
  • सरपंच सभी प्रकार के अधिकतम 10 हजार तक के मामले की सुनवाई कर सकता है।
  • ग्राम कचहरी में एक न्याय मित्र और एक न्याय सचिव भी होता है।
  • न्याय मित्रों एवं न्याय सचिवों के पदों का निर्माण बिहार सरकार द्वारा किया जाता है।
  • न्याय मित्र सरपंच के कार्यो में सहयोग देता है ,न्याय सचिव ग्राम कचहरी के कागजातों को रखता है।

पंचायत समिति

पंचायत समिति,पंचायती राज व्यवस्था का दूसरा एवं मध्य स्तर है। वास्तव,में यह ग्राम पंचायत और जिला परिषद् के बीच की कड़ी है। बिहार में 5000 की आबादी पर पंचायत समिति के सदस्य चुने  प्रवधान है। इसके अतिरिक्त पंचायत समिति के क्षेत्र के अंदर आनेवाली समिति के प्रमुख का चुनाव अप्रत्यक्ष रीती से किया जाता है। प्रमुख अथवा उपप्रमुख के उम्मीदवार प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्यों में से होते है तथा उन्ही के मतों से बनाये जाते है। प्रमुख पंचायत समिति का प्रधान अधिकारी होता है। वह समिति की बैठक बुलाता है और उसकी अध्यक्षता करता है। वह पंचायत समिति के कार्यो की जाँच-पड़ताल करता है और प्रखंड विकास पदाधिकारी समिति का पदेन सचिव होता है। और वह पंचायतों का निरिक्षण करता है और अन्य महत्वपूर्ण कार्यों का संपादन करता है।

पंचायत समिति के के कार्य :-

पंचायत समिति सभी ग्राम पंचायतों की वार्षिक योजनाओं पर विचार-विमर्श करती है तथा समेकित योजना को जिला परिषद में प्रस्तुत करती है। यह ऐसे कार्यकलापों का संपादन एवं निष्पादन सामुदायिक विकास कार्यो एवं प्राकृतिक आपदा के समय राहत का प्रबंध करना भी इसकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।

पंचायत समिति अपना अधिकांश कार्य स्थायी समितियों द्वारा करती है।

जिला परिषद्

बिहार में जिला परिषद् पंचायती राज व्यवस्था का तीसरा स्तर है। 50,000 की आबादी पर जिला परिषद का एक सदस्य चुना जाता है। ग्राम पंचायत और पंचायत समिति की तरह इसमें भी महिलाओं ,अनुसूचित जाती एवं जनजातियों ,पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।
जिले के सभी पंचायत समितियों के प्रमुख इसके सदस्य होते है। प्रत्येक जिला परिषद का एक अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष होता है। उनका निर्वाचन जिला परिषद् के सदस्य अपने सदस्यों के बीच से पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ और शक्तिशाली बनाने के लिए करते है। पंचायती राज संस्थाओं के विघटन की स्थिति में 6 माह के अंदर चुनाव करवाना जरुरी होता है।             

   बिहार पंचायती राज अधिनियम 2005 के द्वारा महिलाओं के लिए संपूर्ण सीटों में आधा सीट अर्थात 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है इसके आलावा अनुसूचित जाती ,जनजाति एवं अत्यंत पिछड़े वर्ग के लोगो के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

जिला परिषद् के कार्य :-

जिला परिषद् के तीन कार्य निम्नलिखित है :-

1. पंचायत समिति एवं ग्राम पंचायत के बीच संबंध स्थापित करना।

2. विभिन्न पंचायत समितियों द्वारा तैयार की गई योजनाओं को संतुलित करना।

3. शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना तथा उनका विकास करना।

बिहार में नगरीय शासन-व्यवस्था

बिहार में कोई महानगर नहीं है,लेकिन हमारे राज्यों में नगरों के स्थानीय शासन के लिए तीन प्रकार की संस्थाएं है –

1. नगर पंचायत

2. नगर परिषद्

3. नगर निगम

1. नगर पंचायत :-ऐसे स्थान जो गाँव से शहर का रूप लेने लगते है वहाँ स्थानीय शासन चलाने के लिए नगर पंचायत का गठन किया जाता है।

जिस शहर की जनसँख्या 12,000 से 40,000 के बीच हो वहां नगर पंचायत की स्थापना की जाती है।

नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या 10 से 37 तक होती है। और सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्षो का होता है। Chapter 2 satta me sajhedari ki karypranali notes

अध्यक्ष नगर पंचायत के सभी कार्यों को करता है।

2. नगर परिषद् :-नगर पंचायतों से बड़े शहरों में नगर परिषद् का गठन किया जाता है।

जिस शहर की जनसँख्या कम-से-कम 200000 से 300000 के बीच होती है ,वहाँ नगर परिषद् की स्थापना की जाती है।

नगर परिषद् के चार अंग होते है –

i. नगर पर्षद

ii. समितियाँ

iii. अध्यक्ष एवं उपाध्क्षय

iv. कार्यपालक पदाधिकारी

नगर परिषद् के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित है –

1. नगर की सफाई करना

2. सड़को एवं गलियों में रोशनी का प्रबंध करना

3. पीने के पानी की व्यवस्था करना

4. सड़क बनाना तथा उसकी मरम्मत करना

5. नालियों की सफाई करना

6. आग से सुरक्षा करना

7. श्मशान घाट का प्रबंध करना

8. मनुष्यों एवं पशुओं के लिए अस्पताल खोलना ,आदि

नगर परिषद् के आय के स्रोत satta me sajhedari ki karypranali

नगर परिषद् विभिन्न प्रकार के कर लगाती है एवं कर वसूली भी है।

जैसे :-मकान कर,पानी कर ,बाजार कर,आदि

3. नगर निगम :-जिस शहर की जनसँख्या 3 लाख से अधिक होती है वैसे शहर में नगर निगम की स्थापना की जाती है।

  • भारत में सर्वप्रथम 1688 में मद्रास में नगर निगम की स्थापना की गई।
  • बिहार में सर्वप्रथम पटना में 1952 में नगर निगम की स्थापना की गई।
  • बिहार में एक नगर निगम में वार्डों की न्यूनतम संख्या 37 और अधिकतम 75 हो सकती है।

*बिहार के विभिन्न नगर निगमों में वार्डों की संख्या :-

पटना – 72

गया –35

भागलपुर –51

मुजफ्फरपुर –48

दरभंगा –48

बिहार शरीफ –46

आरा –45

बिहार में नगर निगम के प्रमुख अंग :-

1. निगम परिषद्

2. सशक्त स्थानीय समिति

3. परामर्शदात्री समितियाँ

4. नगर आयुक्त

नगर निगम के प्रमुख कार्य :-

1. पीने के पानी का प्रबंध करना

2. आग बुझाने का प्रबंध करना

3. मनोरंजन गृह का प्रबंध करना

4. जन्म ,मृत्यु का पंजीकरण का प्रबंध करना

5. नये बाजारों का निर्माण करना

6. नगर में बस आदि चलवाना

7. कूड़ा-कर्कट तथा गंदगी की सफाई करना

8. गलियों,पुलों एवं उद्यानों की सफाई एवं निर्माण करना ,आदि

 class 10th satta me sajhedari ki karypranali notes in hindi,bihar board 10th civics chapter 2 notes in hindi,10th civics notes in hindi,ncert 10th civics notes in hindi,10th social science in hindi,bihar board 10th social science notes in hindi,satta me sajhedari ki karypranali

error: Content is protected !!