10TH CIVICS NOTES

Loktantra me satta ki sajhedari

Loktantra me satta ki sajhedari notes in hindi ,10 civics notes in hindi,Class 10 civics chapter 1 notes

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

*लोकतंत्र :-लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है,जिसमे लोगों के लिए एवं लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है।

*लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद :-द्वन्द्ववाद एक तर्कपद्दति है जो असहमति को दूर करने की एक विधि है।

                                          शासन में लोक प्रतिनिधि लोगों के हित का तथा उनके इच्छा का महत्व देना चाहते है। यही कारण है की शासन के लोकतंत्र व्यवहार समाज में उभरते द्वंद्व से प्रभावित होता है।

मुंबई भारत की वित्तीय राजधानीहै।

*लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के स्वरूप

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन के विभिन्न स्वरुप होते है और इस भेदभाव का विरोध के अपने अलग-अलग तरीके भी होते है।

i.क्षेत्रीय भावना के आधार पर

जैसे:-मुंबई ,दिल्ली आदि शहरों में बिहारी तथा उत्तरप्रदेश के लोगों के विरुद्ध हिंसात्मक व्यवहार

ii.नस्ल या रंग के आधार पर

जैसे:-मैक्सिको ओलंपिक 1968 के पदक समारोह

भारत में सामाजिक विविधता कई रूपों में हैं :-धर्म ,जाति ,लिंग ,भाषा ,क्षेत्र ,संस्कृति आदि के आधार पर भारत में सामाजिक विभाजन है।

*सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पत्ति

*जन्म आधारित सामाजिक विभाजन :-जन्म के कारण ही कोई व्यक्ति किसी समुदाय का सदस्य हो जाता है। जैसे की दलित परिवार में जन्म लेने वाला बच्चा उस समुदाय का स्वाभाविक सदस्य हो जाता है। पुरुष ,स्त्री ,काला-गोरा ,लम्बा-नाटा आदि जन्म का परिणाम है। इस तरह के सामाजिक विभाजन जन्म आधारित सामाजिक विभाजन कहलाता है।

Note :-सभी सामाजिक विभाजन जन्म आधारित नहीं होते है,बल्कि कुछ हम अपने इच्छा से भी चुनते है।

जैसे:-i.कोई व्यक्ति अपने इच्छा से धर्म परिवर्तन करता है और दूसरे समुदाय का सदस्य बन जाता है।

       ii.एक ही परिवार का कोई सदस्य शैव ,शाक्त ,वैष्ण्व धर्म में विश्वास कर सकता है।

       iii.एक ही परिवार के सदस्य अपने विवेक से कोई पेशा चुन सकता है।

*सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में अंतर

आवश्यक नहीं है की सभी सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार होता है। सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर है। class 10 Loktantra me satta ki sajhedari notes

*सामाजिक विभिन्नता :-समाजिक विभिन्नता का अर्थ है की समूह के लोग अपनी जाति ,धर्म ,भाषा ,सभ्यता के कारण भिन्न होते है।

सामाजिक विभिन्नता के कारण :-

i.जन्म के आधार पर

ii.धर्म के आधार पर

iii.आर्थिक स्तर के आधार पर

10TH MOBILE APP DOWNLOAD Click Here

*सामाजिक विभाजन :-जब एक सामाजिक विभिन्नता दूसरी सामाजिक भिन्नता से जुड़ जाती है तो यह सामजिक विभाजन बन जाती है।

सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते है।

जैसे:-

i.स्वर्णो और दलितों का अंतर – दलित संपूर्ण देश में आमतौर पर गरीब ,वंचित एवं बेघर है और भेदभाव का शिकार है और वही स्वर्ण आमतौर पर सम्पन एवं सुविधा युक्त है।

ii.अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर

Note:-कोई भी देश चाहे बड़ा हो या छोटा ,सामाजिक विभाजन और विभिन्नता स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

Loktantra me satta ki sajhedari class10 civics notes

उत्तरी आयरलैंड ग्रेट-ब्रिटेन का एक हिस्सा है। यहाँ की आबादी मुख्यतः ईसाई ही है और ये ईसाई दो प्रमुख पंथ में बंटे हुए है। 53 फीसदी आबादी प्रोटेस्टेंट और 44 फीसदी रोमन कैथोलिक का प्रतिनिधित्व नेशनलिस्ट पार्टियाँ करती है। उनकी माँग है की उत्तरी आयरलैंड को आयरलैंड गणराज्य के साथ मिलाया जाये, जो मुख्यतः कैथोलिक बाहुल्य है।

प्रोटेस्टेंट लोगों का प्रतिनिधित्व यूनियनिस्ट पार्टियाँ करते है जो ग्रेट-ब्रिटेन के साथ ही रहने के पक्ष में है।

                           ब्रिटेन मुख्यतः प्रोटेस्टेंट है। 10 civics notes in hindi , Loktantra me satta ki sajhedari notes in hindi

सामाजिक विभाजन की राजनीति तीन तत्वों पर निर्भर करती है :-

प्रथम :-लोग अपनी पहचान स्व-अस्तित्व तक ही सिमित रखना चाहते है क्योकि प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उपराष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी होते है। कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है।

द्वितीय :-दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है की किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की माँगो को राजनीति दल कैसे उठा रहे है। सविंधान के दायरे में आनेवाली और दूसरे समुदाय को नुकसान न पहुँचाने वाली माँगो को मान लेना आसान है

तृतीये :-सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम सरकार के रूप पर भी निर्भर करता है। यह भी महत्वपूर्ण है की सरकार इन माँगो पर क्या प्रतिक्रियाँ व्यक्त करते है।

*सामाजिक विभाजन में जाति ,धर्म और लिंग विभेद के स्वरुप

सामाजिक विभाजन के तीन तत्वों में जाति की अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण है। राजनीति में इनके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलु की महत्व है।

*जातिगत असमानताएँ

दुनिया भर के सभी समाज में सामाजिक असमानताएँ और श्रम विभाजन पर आधारित समुदाय विधमान है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। पेशे पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति कहलाती है। यह व्यवस्था जब स्थायी हो जाता है तो श्रम विभाजन का अतिवादी रूप कहलाता है,जिसे हम जाती के नाम से पुकारने लगते है। अर्थात ,समाज में दूसरे समुदाय से भिन्न हो जाता है।  इनकी पहचान एक अलग समुदाय के रूप में होता है और इस समुदाय के सभी व्यक्तियों की एक या मिलती-जुलती पेशा होती है।

*वर्ण-व्यवस्था 10th Loktantra me satta ki sajhedari

वर्ण-व्यवस्था जातिगत समुदाय का बड़ा वर्ग है। इस वर्ग में कई जातियाँ समाहित है। अर्थात,वर्ण-व्यवस्था जाति समूहों का पदानुक्रम व्यवस्था है ,जिसमें एक जाती के लोग सामाजिक पायदान में सबसे ऊपर रहेंगे तो किसी अन्य जाति समूह के लोग क्रमागत के क्रम से  होंगे।

जैसे :-हिन्दुओं में वर्ण व्यवस्था का व्यवस्थित स्वरुप है ,जिसमे ब्राह्मण ,क्षत्रिये ,वैश्य तथा शूद्र का क्रमानुसार व्यवस्था है।

*वर्ण-व्यवस्था :-प्राचीन भारतीय समाज को काम के आधार पर चार वर्णो में बाँटा गया है -ब्राह्मण ,क्षत्रिये ,वैश्य तथा शूद्र इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहा जाता है।

जातीय सामाजिक संरचना तथा आर्थिक हैसियत के निर्धारण की कुछ विशेषताएँ है जो समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है:-

1.औसत आर्थिक हैसियत का सबंध वर्ण व्यवस्था से गहरा है। अर्थात ,ऊँची जातियों की स्थिति अच्छी है ,पिछड़ी जातियों की स्थिति मध्यम दर्जे की है ,दलित और आदिवासियों की स्थिति बदतर है।

2.लेकिन हर जातियों में आमिर-गरीब है,परन्तु दलितों ,आदिवासियों में ज्यादा बड़ी संख्या में गरीबी है। दलितों में महादलितों की स्थिति दयनीय है। अमीरों की अधिक संख्या ऊँची जातीय समुदाय में है।

*राजनीति में जाति

सामुदायिक समाज के संरचना की आधार जाती है क्योकि एक जाति के लोग ही स्वाभाविक समुदाय का निर्माण करते है। इन समुदायों के लोगों के हित  समान होते है ,दूसरे अन्य समुदाय के हितों से इनका हित भिन्न होता है।

राजनीति में जातियों के अनेक पहलू हो सकते है:-

1.निर्वाचन के समय पार्टी अभ्यर्थी तय करते समय जातीय समीकरण का ध्यान जरूर करती है। चुनाव क्षेत्र में जिस जाती विशेष की मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक होती है,पार्टियाँ उस जाती के हिसाब से अभ्यर्थी (Candidate)तय करती है।

2.राजनीति पार्टियाँ जीत हासिल करने के लिए जातिगत भावना को भड़काने की कोशिश करते है,जिससे कुछ दल विशेष को पहचान भी जातिगत भावना के आधार पर हो जाती है।

3.निर्वाचन के समय पार्टियाँ वोटरों के बीच साख बनाने हेतु अपना चेहरा स्वच्छ और जाति भावना से ऊपर बनाने की कोशिश करते है।

4.दलित और नीची जातियों का भी महत्व निर्वाचन के वक्त बढ़ जाता है। उच्च वर्ग या जाति के उम्मीदवार भी नीची जातियों के सम्मुख नम्र भावना से जाते है ,जिससे उनका वोट मिल जाये।

*सांप्रदायिकता :-सांप्रदायिकता एक संकुचित मनोवृति है जिसे एक धर्म के लोग अपने धर्म को उच्च मानते है तथा दूसरे धर्म को निच मानते है,वही भावना सांप्रदायिकता कहलाता है।

राजनीति में धर्म एक समस्या के रूप में तब खड़ी हो जाती है तब :-

i.धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है।

ii.राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशेष के विशिष्ठता के लिए की जाती है।

iii.राजनीति किसी धर्म विशेष के दावे का समर्थन करने लगती है।

iv.किसी धर्म विशेष के अनुयायी दूसरे धर्मावलम्बियों के खिलाफ मोर्चा खोलने लगता है।

Note:-राजनीति में धर्म को इस तरह इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता कहलाता है।

*धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा

भारत में शासन का धर्म निरपेक्ष मॉडल चुना गया और हमारा देश धर्मनिरपेक्ष(Secular) देश बना।

हमारे सविंधान में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु अनेक उपबंध किये गए है :-

i.हमारे देश में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है।

ii.भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता है।

iii.संविधान में हर नागरिक को यह स्वतंत्रता दी गई है की वह अपने विश्वास से किसी धर्म को अपना सकता है।

iv.प्रत्येक धर्मावलंबियों को अपने धर्म का पालन करने अथवा शांतिपूर्ण ढंग से प्रचार करने का अधिकार है। इसके लिए वह शिक्षण संस्थाओं को स्थापित और संचालित कर सकता है।

v.हमारे सविंधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असैंवधानिक घोषित है।

vi.संविधान के अनुसार धार्मिक समुदाय में समानता स्थापित करने के लिए धार्मिक मामलों में भी दखल दिया जा सकता है।

Note:-धर्म निरपेक्षता केवल विचारधारा ही नहीं है बल्कि संविधान ही बुनियाद है। जबकि सांप्रदायिकता भारत की बुनियादी अवधारणा के लिए एक चुनौती है।

*श्रम के लैंगिक विभाजन :-काम के आधार पर समाज में जो विभाजन किया गया है स्त्री और पुरुष के बीच इसे ही श्रम के लैंगिक विभाजन कहा जाता है।

जैसे:-घर के अंदर का काम महिलाओं का तथा बाहर का काम पुरुषों का होता है।

  • सर्वप्रथम इंगलैंड में 1918 में महिलाओं को वोट का अधिकार प्राप्त हुया था।
  • स्वीडेन ,नार्वे और फिनलैंड में सार्वजानिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर काफी ऊँचा है।
  • भारत के लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 59 हो गयी है।
  • भारत में 90 प्रतिशत महिला सांसद स्नातक है। 

ncert 10 civics notes in hindi,Loktantra me satta ki sajhedari pdf notes

error: Content is protected !!