10th Hindi Qestion & Answer

Class 10th Jantantr ka Janm Question Answer

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1.कवि की दृष्टि में समय के रथ को धर्म नाद क्या है? स्पष्ट करें।

उत्तर : कवि स्वाधीन भारत की पराकाष्ठता को मजबूत बनाना चाहता है। बदलते समय में भारत का स्वरूप भी बदल रहा है। आज राजा नहीं प्रजा सिंहासन पर आरूढ़ हो रही है। असीम वेदना सहनेवाली जनता आज जयघोष कर रही है। देश का बागडोर राजा के हाथ में नहीं जनता के हाथ में हो रही है। आज उसका हुंकार सर्वत्र सुनाई पड़ती है। राजनेताओं के सिर पर राजमुकुट नहीं है।

2.कविता के आरंभ में कवि भारतीय जनता का वर्णन किस रूप में करता है?

उत्तर : वर्षों की पराधीनता की बेड़ी को तोड़कर आज जनता जयघोष करती है। वह हुँकार भरती हुई सिंहासन खाली करने को कहती है। मूर्तिमान रहने वाली जनता आज मुँह खोल चुकी है। पैरों के तले रौंदी जाने वाली, जाड़े-पाले की कसक सहनेवाली आज अपनी वेदना को सुना रही है। पराधीन भारत में जनता त्रस्त थीं। मुंह बंद रखने के लिए विवश थीं। किन्तु आज हुँकार कर रही है। Class 10th Hindi Notes

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3.कवि के अनुसार किन लोगों की दृष्टि में जनता फूल या दुधमुंही बच्ची की तरह है और क्यों? कवि क्या कहकर उनका प्रतिवाद करता है?

उत्तर : सिंहासन पर आरूढ रहनेवाले राजनेताओं की दृष्टि में जनता फूल या दुधमुंही बच्ची की तरह है। रोती हुई दुधमुंही बच्ची को शान्त रखने के लिए उसके सामने खिलौने कर दी जाती है। उसी प्रकार रोती हुई जनता को खुश करने के लिए कुछ प्रलोभन दिये जाते हैं। कवि यहाँ कहना चाहता है कि जनता जब क्रोध से आकुल हो जाती है तब सिंहासन की बात कौन कहें धरती भी काँप उठती है। सिंहासन खाली कराकर एक नये प्रतिनिधि को बिठा देती है। देश का बागडोर प्रतिनिधि में नहीं जनता के हाथ में है। Class 10th Jantantr ka Janm Notes

4.कवि जनता के स्वज की किस तरह चित्र खींचता है ?

उत्तर : स्वाधीन भारत की नींव जनता है। गणतंत्र जनतंत्र पर निर्भर है। जनता का स्वप्न अजेय है। सालों सदियों अंधकार युग में रहनेवाली जनता आज प्रकाश युग में जी रही है। वर्षों से स्वप्न को संजोये रखने वाली जनता निर्भय होकर एक नये युग का शुरू उक्त कर रही है। आज अंधकार ‘युग का अंत हो चुका है। विश्व का विशाल जनतंत्र उदय हुआ है। अभिषेक राजा का कहीं प्रजा का होने वाला है।

5.विराट जनतंत्र का स्वरूप क्या है? कवि किनके सिर पर मुकुट धरने की बात करता है और क्यों?

उत्तर : भारत विश्व का विशाल गणतंत्रात्मक देश है। यहाँ देश का बागडोर राजनेताओं को न देकर जनता को दिया गया है। जनता ही सर्वोपरि है। अपने मनपसंद प्रतिनिधि को ही सिंहासन पर आरूढ़ करती है। कवि जनता के सिर पर मुकुट धरने की बात करता है। कवि का मत है कि गणतंत्र भारत का स्वरूप जनता के अनुरूप हो। जनता को पक्ष मैं लेकर ही देश की रूपरेखा तैयार की जाये। मनमानी करने वाले राजनेताओं को सिंहासन से उतारकर नये राजनेता को जनता ही आरूढ करती है।

6.कवि की दृष्टि में आज के देवता कौन हैं और वे कहाँ मिलेंगे?

उत्तर : कवि की दृष्टि में आप के देवता कठोर परिश्रम करने वाले मजदूर और कृषक हैं। वे पत्थर तोड़ते हुए या खेत- खलिहानों में काम करते हुए मिलेंगे। भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। किसान ही भारत के मेरूदंड हैं। जेठं की दुपहरी हो गया ठंडा के सर्दी या फिर मुसलाधार वर्षा सभी में वे बिना थके हुए खेत-खलिहानों में डटे हुए मिलते हैं।

7.कविता का मूल भाव क्या है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : प्रस्तुत कविता में स्वाधीनता भारत का सजीवात्मक चित्रण किया है। सदियों बाद जनतंत्र का उदय हुआ है। पराधीन भारत की स्थितिः अत्यन्त दयनीय थीं। चारों तरफ शोषण, कुसरेकार, अत्याचार आदि का साम्राज्य क्या भारतवासी मुंह बंद कर सबकुछ सहने के लिए विवश थे। पराधीनता की बेड़ी से मुक्त होते ही भारतीय जनता सुख से अभिप्रेत हो गई। जनता सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए आतुर हो गई। मिट्टी की मूर्तिमान रहनेवाली जनता मुँह खोलने लगी है। कभी असीम वेदना को सहनेवाली जनता आज हुंकार भर रही है। गणतंत्र का बागडोर जनता के हाथ में है। मिट्टी तोड़ने वाले, खेत-खलिहानों में काम करने वाले जयघोष कर रहे हैं। आज फावड़ा और हल राजदंड बना हुआ है। आज परिस्थिति बंदल चुकी है। राजनेता नहीं जनता सिंहासन पर आरूढ़ होनेवाली है।

8.व्याख्या करें

(क) सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठीं,

       मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है ;

व्याख्या : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित जनतंत्र का जन्म शीर्षक कविता से संकलित है। इसमें कवि स्वाधीन भारत की रूपरेखा को सजीवात्मक रूप से प्रदर्शित किया है। । कवि की अभिव्यक्ति है। है कि स्वाधीनता मिलते ही भारत में जनतंत्र का उदय हो गया है। बुझी हुई राख धीरे-धीरे सुलगने लगी है। सोने का ताज पहनकर भारत आज इठला रहा है। वर्षों से त्रस्त जनता हुँकार भर रही है।

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(ख) हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

       साँसों के बल से ताप हवा में उड़ता है; 

       जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?

       वह जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है।

व्याख्या : प्रस्तुत पंक्तियाँ उत्तर छायावाद के प्रखर कवि रामधारी सिंह दिनकर ‘द्वारा रचित जनतंत्र का जन्म’ शीर्षक कविता से संकलित है। पराधीन भारत की दयनीय स्थिति को देखकर कवि हृदय विचलित हो उठा था। स्वाधीनता मिलते ही उसका मुखमंडल दीप्त हो उठा है। जनता की हुँकार प्रबल बेग से उठती है। सिंहासन की बात कौन कहें धरती भी काँप उठती है। उसके साँसों से ताप हवा में उठने लगते हैं। जनता की रूख जिधर उठती है उधर ही समय भी अपना मुख कर देता है। वस्तुतः यहाँ कवि कहना चाहता है कि जनता ही सर्वोपरि है। वह जिसे चाहती है उसे राजसिंहासन पर आरूढ़ करती है।

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