10th Life Processes Notes (जैव प्रक्रम)
इस पोस्ट में आप 10th Life Processes Notes In Hindi के बारे में जानेगें ,इस पोस्ट में Class 10th कक्षा 10वीं के जैव प्रक्रम से सबंधित सभी टॉपिक को शामिल किया गया है। जिससे आप Class 10 Life Processes के बारे खुद पढ़ कर समझ सकते है। जैव प्रक्रम: पोषण(Life Processes :Nutrition)
Contents
जैव प्रक्रम(Life Processes)
*जैव प्रक्रम(Life Processes) :-जिस प्रक्रम द्वारा प्रत्येक जिव धारी अपने आपका अनुरक्षण करता है उसे जैव प्रक्रम कहते है |
*पोषण :- पोषण शब्द की उत्पति ग्रीक भाषा के पोषाक शब्द से हुआ है | जिसका अर्थ होता है स्तर |
पोषण (Nutrition) की विधियाँ
(i)स्वपोषण (Autotrophic)
(ii)परपोषण (heterophic)
*स्वपोषण :-स्वपोषण शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के ऑटोट्रॉफ शब्द से हुआ है जिसमे ऑटो का अर्थ होता है स्व /स्वतः तथा ट्रॉफ का अर्थ होता है पोषण |
अर्थात,ऑटो + ट्रॉफ =स्वपोषण
(i)स्वपोषण:-ऐसा जिव जो भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वय संश्लेषित करता है ,स्वपोषण कहलाता है |
जैसे :-हरे पेड़-पौधे ,नील हरित शैवाल
*परपोषण :-परपोषण शब्द की उत्पति ग्रीक भाषा के हेट्रोट्रॉफ शब्द से हुआ है | जिसमे हेट्रो का अर्थ होता है पर /विषम /भिन्न तथा ट्रॉफ का अर्थ होता है पोषण |
अर्थात,हेट्रो +ट्रॉफ =परपोषण
(ii)परपोषण:-परपोषण वह प्रक्रिया है जिसमे जिव अपना भोजन स्वय संश्लेषित न कर किसी न किसी रूप मर अन्य स्रोतों से प्राप्त करता है ,उसे परपोषण कहते है |
जैसे :-मनुष्य ,अन्य जिव-जंतु
परपोषण के प्रकार
(i)मृतजीवी पोषण (Saprophytic Nutrition)
(ii)परजीवी पोषण (Parasitic Nutrition)
(iii)प्राणिसम पोषण (Holozoic nutrition)
(i)मृतजीवी पोषण:-मृतजीवी शब्द की उत्पति ग्रीक भाषा के सैप्रोस शब्द से हुआ है जिसका अर्थ होता है ‘अवशोषण ‘
इस प्रकार के पोषण में जीव मृत जन्तुओं और पेड़-पौधे के शरीर से अपना भोजन घुलित कार्बनिक पदार्थ के रूप में अवशोषित करते है उसे मृतजीवी पोषण कहते है |
जैसे :-कवक ,बैक्टीरिया ,प्रोटोजोआ इत्यादि
(ii)परजीवी पोषण:-परजीवी शब्द की उत्पति ग्रीक भाषा पारासाइट शब्द से हुआ है जिसमे पारा का अर्थ है ‘पास /बगल तथा साइट का अर्थ होता है पोषण
इस प्रकार के पोषण में जिव दूसरे प्राणी के संपर्क में स्थाई या अस्थाई रूप से रहकर उससे अपना भोजन प्राप्त करते है ,परजीवी कहलाता है |
जैसे :-गोलकृमि ,हुकवर्म ,टेकवर्म इत्यादि
(iii)प्राणिसम पोषण:-प्राणिसम पोषण शब्द की उत्पति ग्रीक भाषा के होलोजोइक शब्द से हुआ है जिसमे होलो का अर्थ होता है पूर्ण रूप से तथा जोइक का अर्थ होता है जंतु जैसा |
वैसा पोषण जिसमे प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की वीधि द्वारा ग्रहण करते है ,उसे प्राणिसम पोषण कहते है |
जैसे :-अमीबा ,मेढ़क ,मनुष्य इत्यादि
प्रकाशसंश्लेषण की अभिक्रिया में Co2 गैस आवश्यक है कैसे ?
⇒इस प्रयोग को दर्शाने के लिए हमने गमले वाला एक पौधा लिया ,जिनके पत्ते लम्बे व चौड़े थे | इस गमले को उठाकर अंधेरे कमरे में तीन से चार दिन तक छोड़ देते है |
इसी दौरान एक बोतल लेकर बोतल में पोटैशियम डाइऑक्साइड डालकर बोतल के कॉर्क के बीचो-बीच छेद कर पत्ते के आधा भाग को बोतल के अंदर तथा आधा भाग को बोतल के बाहर रखकर कॉर्क को अच्छी तरह से कस देते है |
उसके बाद गमला को उठाकर धुप में रखकर तीन से चार घंटा छोड़ देते है उसके बाद पत्ता को तोड़ कर एक विकर लेकर विकर मर पानी डालकर उसे स्प्रीड ज्वलक से गर्म करते है और उसे उबालते हुए जल में पत्ते को डालकर अच्छी तरह से उबाल देते है |
इसके बाद निकालकर अल्कोहल से धोते है तथा मंडपरीक्षण के लिए आयोडीन के घोल में पत्ते को डालकर कुछ देर के बाद निकलते है तो पाते है की पत्ते का कुछ भाग नीला हो गया तथा कुछ भाग ज्यो का त्यों रह गया |10th Life Processes Notes In Hindi
पत्ते का वह भाग नीला नहीं हुआ जो बोतल के अंदर था | क्योकि अंदर वाले भाग में प्रकाशसंश्लेषण के क्रिया के लिए सारे के सारे आवश्यक तत्व तो मिले लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड उसे नहीं प्राप्त हुआ ,कुछ मिला भी तो पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड (KOH)उसे अवशोषित कर लिया | जब की बाहर वाले भाग में प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया के लिए सारे आवश्यक तत्व मिले | जिसके कारण इसमें मंड का निर्माण हुआ और परिक्षण के फलस्वरूप नीला हो गया | अतः हम कह सकते है की प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया के लिए Co2 आवश्यक है |
प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया के लिए क्लोरोफिल आवश्यक है कैसे ?
⇒
इस प्रयोग के लिए हमने एक क्रोटन के चित्तेदार पत्ते लिया तथा उसके चित्तेदार भाग को पेंसिल से सूचित कर दिया | उसके बाद एक विकार लिया ,उसमे पानी डालकर उसे स्प्रीट ज्वलक से गर्म कर जल को उबलते है ,तथा उस उबलते हुए जल में पत्ते को डालकर अच्छी तरह से उबाल देते है और अब मंडपरीक्षण के लिए आयोडीन के घोल लेकर पत्ते को उसमे डाल देते है तथा कुछ देर के बाद निकालकर देखते है तो पत्तो का कुछ भाग नीला हो गया है तथा कुछ भाग ज्यो का त्यों रह गया है |
पत्ते का वह भाग जो नीला नहीं होता है जो चित्तेदार है क्योकि चित्तेदार भाग में क्लोरोफिल मौजूद नहीं है जिसके कारण प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया नहीं हुई जब की शेष भाग में प्रकाशसंशलेषण की क्रिया द्वारा मंडपरीक्षण में इसका रंग नीला हो गया | अतः हम कह सकते है की प्रकाशसंशलेषण के लिए क्लोरोफिल आवश्यक है |
जंतुओं में पोषण
एक कोशिकीय जन्तु में पोषण
:-एक कोशकीय जन्तु में पोषण की प्रक्रिया तीन चरणों में पूरी होती है |
(i)अंतर्ग्रहण
(ii)पाचन
(iii)बहिष्करण
(i)अंतर्ग्रहण:-एक कोशिकीय प्राणी द्वारा भोज पदार्थो को शरीर के अंदर ग्रहण करने की प्रक्रिया को अंतर्ग्रहण कहते है |
(ii)पाचन :-अंतर्ग्रहण किये गए भोज पदार्थो को सरल व छोटे – छोटे अणु में तोड़ने या अपघटन करने की प्रक्रिया को पाचन कहते है |
(iii)बहिष्य्करण :-पाचन के बाद बचे शेष अवशिष्ट व हानिकारक पदार्थो को शरीर से बाहर निकालने की प्रक्रिया को बहिष्य्करण कहते है |
➤अमीबा भोजन ग्रहण कूटपादों के द्वारा करता है |
➤अमीबा में भोजन का पाचन भोजन रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है |
बहुकोशिकीय जन्तुओं में पोषण
:-बहुकोशकीय जन्तुओं में पोषण की प्रक्रिया पाँच चरणों में पूरी होती है |
(i)अंतर्ग्रहण
(ii)पाचन
(iii)अवशोषण
(iv)स्वागीकरण
(v)बहिष्करण
(i)अंतर्ग्रहण :-बहुकोशकीय जंतुओं में भोज पदार्थो को मुखगुहा के अंदर ग्रहण करने की प्रक्रिया को अंतर्ग्रहण कहते है |
(ii)पाचन :-अंतर्ग्रहण किये गए भोज पदार्थो को सरल व छोटे -छोटे अणुओं में तोड़ने की प्रक्रिया को पाचन कहते है |
(iii)अवशोषण :-पाचित भोज पदार्थो में से उपयोगी भोज पदार्थो को अवशोषित करने की प्रक्रिया को अवशोषण कहते है |
(iv)स्वागीकरण :-अवशोषण भोज पदार्थो को रक्त के माध्यम से शरीर के विभिन्न कोशिकाओं तक पहुंचाने की प्रक्रिया को स्वागीकरण कहते है |
(v)बहिष्करण :-अपचे अवशिष्ट पदार्थो को शरीर से बाहर निकालने की प्रक्रिया को बहिष्करण कहते है |
मनुष्य का पाचनतंत्र
➨मनुष्य के पाचन की प्रक्रिया में भाग लेने वाले अंगो को सम्लित रूप से पाचन तंत्र कहते है |
जैसे :-मुखगुहा
ग्रासनली
अमाशय
आंत (छोटी एवं बड़ी)
यकृत
अग्न्याशय
मुखगुहा
*मुखगुहा :-मनुष्य का मुख एक दरार के समान है,जो ऊपरी व निचली जबड़ो के रूप में खुलती है | इनके ऊपरी जबड़ा स्थिर तथा निचली जबड़ा गतिशील होती है | उन जबड़ो में दांतो की एक – एक पंक्तियाँ होती तथा मांसल भाग के रूप में जीवा (जीभ) स्थित होता है |
दाँत
*दाँत :-दाँत मनुष्य के शरीर में सबसे पीछे जन्म लेने वाली हड्डी है | जो कैल्सियम और फास्फोरस के बने होते है | इसमें विशेष प्रकार की चमक, इनैमल के कारण होता है | दाँत जीवन में दो बार आता है |
- मानव शरीर के अंदर सबसे कठोर भाग दाँतो का इनामेल है |
- मनुष्य में अस्थाई दांतो की संख्या 20 होती है |
- मनुष्य में स्थाई दांतो की संख्या 32 होती है |
दाँत के प्रकार
:-मनुष्य में चार प्रकार के दाँत पाये जाते है |
(i)रदनक (Incisor)
(ii)कृदन्त (Canine)
(iii)चवर्णक (Molar)
(iv)अग्रचवर्णक (Premolar)
(i)रदनक (Incisor):-इसका कार्य है चीड़ना – फाड़ना |
(ii)कृदन्त (Canine):- इसका कार्य है काटना और ये आगे,ऊपर ,नीचे ,बीचों-बीच स्थित होता है ,ये चौड़े होते है|
(iii)चवर्णक (Molar) │ये दोनों का कार्य है चवाना या पीसना |
(iv)अग्रचवर्णक (Premolar)│
दाँत के भाग
:-हमारे दांतो के मुख्यतः तीन भाग होते है |
(i)ऊपरी भाग :-इसे शिखर कहा जाता है |
(ii)मध्य भाग :-इसे ग्रीवा कहा जाता है |
(iii)निचला भाग :-इसे जड़ कहा जाता है |
दाँत की विशेषता
:-हमारे दाँतो की मुख्यतः तीन विशेषता होती है |
(i)गर्तदन्ति :-इसका अर्थ होता है जबड़ों की हड्डी में धसा रहना |
(ii)द्दिवारदन्ति :-इसका अर्थ होता है जीवन में दो बार आना |
(iii)विषमदन्ति :-इसका अर्थ होता है एक स्व अधिक प्रकार के अर्थात चार प्रकार के |
जिहवा (जीभ)
➨हमारे मुखगुहा में मांस भाग के रूप में जिह्वा पाया जाता है | जो उपकला उत्तक के बने होते है | इसके सहायता से हमें स्वाद का पता चलता है |
*स्वादकुर :-जिह्वा में स्वाद बताने वाले भागो को सम्मलित रूप से स्वादकुर कहते है |
➠स्वाद बताने वाले मुख्यतः तीन कलिकाएँ है :-
(i)फंगीफार्म :-इसकी सहायता से हमें खट्टा ,मीठा ,नमकीन स्वाद का पता चलता है |
(ii)फिलीफार्म :-इसकी सहायता से हमें अलग से कोई स्वाद का पता नहीं चलता है |
(iii)सरकममैलेट :-इसकी सहायता से हमें कड़वा स्वाद का पता चलता है |
*लारग्रंथि :-हमारे मुखगुहा में लार ग्रंथियों से दो प्रकार के लार स्रावित होते है |
(i)टाइलीन
(ii)लाइपेज
➤लार अम्लीय प्राकृतिक की होती है | इसका PH मान 6.5 होता है | हमारे मुखगुहा में एक दिन में 1 से 1.5 L लार स्रावित होता है |
➤हमारे मुखगुहा में तीन जोड़ी लार ग्रंथिया पाई जाती है |
(i)कर्णमूल
(ii)अधोजिह्वा
(iii)अधोहंणु
Note :-सबसे बड़ी लार ग्रंथि कर्णमूल लार ग्रंथि है |
ग्रासनली
➨ग्रासनली का पाचन की क्रिया में कोई विशेष योगदान नहीं है | इसका कार्य सिर्फ यही है की यह भोजन को मुखगुहा से लेकर आमाशय तक पहुँचान है |
*अमाशय :-अमाशय उदरगुहा में बायीं ओर स्थित होता है तथा यह द्वी -पालिका थैली जैसी रचना होती है | इसकी लम्बाई 30 cm होती है ,जबकि चौड़ाई भोजन की मात्रा के अनुसार घटती -बढ़ती रहती है | अमाशय का पिछला भाग शंकरा होता है तथा एक छिद्र के रूप में पक्वाशय में खुलता है |
अमाशय में भोजन 3 से 4 घंटा रुकता है ,तब अमाशय के पाइलेरिक ग्रंथियों से दो प्रकार के जठर रस स्रावित होता है |
(i)पेप्सीन :-यह प्रोटीन का पाचन करता है तथा प्रोटीन को पेप्टोन्स में बदल देता है |
(ii)रेनिन :-यह दूध में मिले हुए कैल्सियम की मात्रा को पराकैसिनेट में बदल देता है |
Note:-रेनिन छोटे बच्चों में सबसे ज्यादा स्रावित होता है |
➤अमाशय के ऑक्सीटिक कोशिका से HCl अम्ल स्रावित होता है |
HCl अम्ल के कार्य
(i)यह भोजन के साथ मिलकर अपने लार की मात्रा को खत्म कर देता है |
(ii)यह भोजन के साथ मिलकर अपने हानिकारक बैक्ट्रिया या सूक्ष्म जीव को नष्ट कर देता है |
(iii)यह भोजन को अम्लीय माध्यम प्रदान करता है तथा भोजन को पचाने में मदद करता है | इसीलिए इसे भोजन पचाने वाला अम्ल कहा जाता है |
*आँत :-समस्त आँतों को दो भागो में बाँटा गया है |
(1)छोटी आँत :-इसका प्रारंभिक भाग अंग्रेजी के अक्षर U के समान होता है | छोटी आँत में भोजन का पूर्णतः पाचन एवं अवशोषण होता है |
➤छोटी आँत के तीन भाग होते है |
(i)ग्रहणी(Duodenum)
(ii)जेजुनम(Jejunum)
(iii)इलियम(ileum)
*रंशाकुर:-छोटी आँत के जिस भाग में भोज्य पदार्थो का पाचन एवं अवशोषण होता है उसे रंशांकुर कहते है |
*क्षुद्रांत्र :-छोटी आँत के जिस भाग में वसा का पाचन एवं अवशोषण होता है उसे क्षुद्रांत्र कहते है |
यकृत(Liver)
*यकृत(Liver):-यकृत मानव शरीर के अंदर सांसे बड़ी ग्रंथि है | इसका वजन 1.5 -2 kg होता है | यह उदरगुहा में डायफ्रॉम के पीछे स्थित होता है एवं अमाशय के कुछ भाग को ढके रहता है | इसके चारो और पेरिटोनियम नामक झिल्ली का आवरण पाया जाता है इसमें पित का निर्माण होता है जो पित्ताशय में जमा होता है |
यकृत के कार्य
(i)यकृत आवश्यकता से अधिक कार्बोहाइड्रेड को वसा में बदल देता है | जरूरत पड़ने पर इन वसाओं का पुनः कार्बोहाइड्रेड में बदल देता है |
(ii)यकृत अमोनिया को यूरिया में बदल देता है |
(iii)यह विटामिन A को संश्लेषण तथा विटामिन A ,C ,D का संचय करती है |
(iv)यकृत से दो प्रकार के प्रोटीन का स्राव होता है |
(a)हिपैरिन :-यह शरीर के अंदर रक्त को जमने से रोकता है |
(b)फाइब्रिनिजोन :-यह शरीर के बाहर रक्त को थका बनने में मदद करता है |
(v)इसमें पित का निर्माण होता है |
(vi)यह रक्त के ताप को नियंत्रित करता है |
(vii)अगर कोई व्यक्ति जहर खाकर मरता है तो उसकी पहचान यकृत से होती है |
*अग्न्याशय :-यह मानव शरीर के अंदर दूसरी सबसे बड़ी ग्रंथि है | यह मात्र एक ऐसी ग्रंथि है जो अंतः स्रावी एवं बहिस्रावी दोनों का कार्य करती है | ये Acinous नमक कोशिकाओं का बना होता है जो अग्न्याशय रस का स्रवण करती है |
*लागर हैंस की द्विपिक :-अग्न्याशय के कोशिकाओं के बीच में कुछ पिले रंग की कोशिकाएँ समूह में व्यवस्थित रहती है जिन्हे लैंगर हैंस की द्विपिका कहते है |
➤इसके तीन कोशिका है |
(i)∝ :-इसे ग्लुकेगॉन स्रावित होता है |
(ii)β :-इसे इन्सुलिन स्रावित होता है |
(iii)у :- सोमाइटोस्टेटिन नामक हार्मोन स्रावित होता है |
*इन्सुलिन :-इसका खोज बेंटिंग वेस्ट के द्वारा 1921 ई० में किया गया था ,यह शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है |
➤इन्सुलिन की अल्प स्रवण से मधुमेय (Diabities)होता है |
➤इन्सुलिन के अधिक स्रवण से हाइपोग्लाइसीमिया नामक रोग होता है |
*बड़ी आँत :-यह वृहदांत्र(colon)तथा मलाशय (Rectum)में बटी होती है। वृहदांत्रकी दिवार बहार की ओर छोटी -छोटी थैलियों के रूप में फूल रहती है | मलाशय की दिवार भी थोड़ी -थोड़ी दुरी पर फूली रहती है | यह गुदा से होकर बाहर खुलती है |